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बचपन वही तो होता है जो कंचे और अंटियों को जेबों में भरकर सो जाए, बचपन यानी जो पतंगों को बस्ते में छुपाकर लाए, बचपन मतलब जो मिट्टी को सानकर लड्डू बनाए, बचपन बोले तो जो बड़ों की हर चीज को छुपकर आजमाएँ। बचपन यानी पेड़ पर चढ़ने के बाद जो उतरने के लिए चिल्लाए, बचपन कहें तो वो जो अंदर से दरवाजा बंद कर बड़ों की परेशानी बन जाए, कुल मिलाकर बचपन यानी शरारत और मस्ती की खिलखिलाती पाठशाला।

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धूल और माटी में सनकर ही हमने जाना कि आँगन में कितने और कैसे-कैसे पौधे हैं। छुईमुई कैसी होती है? तुलसी को आँगन की रानी क्यों कहा जाता है? घोंघें कैसे अपने ही घर को सिर पर उठाए घुमते हैं। हाथ के ऊपर रेत और मिट्टी चढ़ाकर घरौंदे बनाते हुए अपना घर बनाने की सीख ले ली। जब नन्हे शंख और सीपी से उसे सजाकर आत्मीयता से थपथपाया तो खूबसूरत घर की परिभाषा भी जानी।

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मिट्टी की वह मीठी और महकती सौंधी गंध भावनाओं में उतर कर ह्रदय को स्पर्श कर गई थी उसे आज भी शब्दों में पिरोकर व्यक्त करना मुश्किल है। तितली की सुंदर चित्रकारी को देखकर हमने ना जाने कितने कल्पना के घोड़े दौड़ाए, कौन बैठकर इतनी बारीकी से रंगों को सजाता है? उन्हें देखते हुए कब छोटे-छोटे हाथों ने नन्ही तुलिका उठा ली, पता ही नहीं चला।
माँ के आटा गूँथते ही चहचहाती गौरेयों का समूह खिड़की पर मँडराने लगता तो माँ बताती, देखों इसे कहते हैं समय की पाबंदी। अक्सर सोचती हूँ कि यदि बचपन में ही सबकुछ सैद्धांतिक, तार्किक और वैज्ञानिक तरीके से सीख लिया होता तो आज किस भोली समझ और मासूम ज्ञानार्जन को याद करके मुस्कराती?

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